दिल्‍ली हिंसा को देखकर अपने-अपने मन को टटोलने का समय है

दिल्‍ली में जिस तरह से हिंसा ने पांव पसारे, वह हम सबके लिए गहरी चिंता का विषय होना चाहिए. जीवन संवाद में हम निरंतर स्‍वयं से संवाद और शांति और अहिंसा की बात कर रहे हैं. ऐसे समय में जब दिल्‍ली अपनी समरसता और सबको छांव देने वाली छवि से दूर आग की लपटों में घि‍री है. यह हम सबके अपने-अपने मन को टटोलने का समय है.


हम कितने हिंसक होते जा रहे हैं. इस पर सोचने का यह सबसे सही समय है. टीवी की आक्रामक भाषा केवल युवा, बच्‍चों को प्रभावित नहीं कर रही है, वह नागरिकों की धमनियों में रक्‍त के प्रवाह में उत्‍तेजना फैलाने का काम कर रही है. गुस्‍से से भरी एंकर को सुनकर बुजुर्गों के ब्‍लड प्रेशर बढ़ने की खबरें हम आए दिन सुन रहे हैं. यह धीमी गति से हिंसा बढ़ाने का काम है. जो इतने धीरे-धीरे हुआ कि हमारी इस ओर नजर नहीं गई.


दिल्‍ली में जिस तरह की हिंसा हो रही है. उसके लिए हमारी भीतर लंबे समय से ठूंसी जा रही हिंसा जिम्‍मेदार है. हिंसा पर सबसे पहले समाज का सख्‍त होना जरूरी है. बहुत पुरानी बात नहीं है, जब मोहल्‍लों, कॉलोनियों में नियमित रूप से बुजुर्गों की बैठकें होती थीं. अब यह सब द‍िखता नहीं. अब तो अफवाह के प्रभाव में समाज के युवा सबसे पहले आते हैं. जिनको संभालने का काम बड़ों का है. लेकिन यह युवा पागलपन की हद तक वायरल वीडियो के झूठे रचे गए सच के प्रभाव में है


सोशल मीडिया के आने के बाद भारत में अफवाह और हिंसा सबसे तेजी से बढ़ने का एक बड़ा कारण यह है कि इसके माध्‍यम से आसानी से लोगों को एकजुट किया जा सकता है. दिल्‍ली में व्‍हाट्सएप पर अधिकांश ‘फेक’ वीडियो दौड़ रहे हैं. मोबाइल, इंटरनेट हमारे दिमाग की सोचने-समझने की क्षमता को इतनी तेज़ी से प्रभावित करता है कि हम अनजान लोगों के भेजे जा रहे संवेदनशील मुददों पर अपुष्‍ट वीडियो और खबरों को आगे बढ़ाने का काम करने लगते हैं. यह हिंसा को बढ़ाने में अनजाने में की जा रही गलती है


दंगों के बारे में उपलब्‍ध जानकारी, अध्‍ययन का सारांश यही है कि इसे हवा देने का काम बाहरी शक्तियां करती हैं. इसकी आग बाहर से फैलाई जाती है लेकिन लपटों का फैलना स्‍थानीय समाज में अहिंसा के बोध पर निर्भर करता है. दंगे भयावह रूप तब धारण करते हैं, जब स्‍थानीय एकता टूट जाती है. हमारे दिमाग का कचरा, दूसरे समुदाय के लिए मन में दबी कुंठा को हवा देता है. इस तरह के विचारों पर अधकचरी जानकारी हमें आक्रामक बनाती है.अहिंसा हमारे मन की भीतरी परत है. जब तक मन में पड़ा कचरा, हिंसा की ठोस परत साफ न हो, हम अहिंसा के साथ खड़े नहीं हो सकते. इसलिए, हमें बार-बार लौटकर बुद्ध और गांधी के पास जाने की जरूरत है. किसी भी तरह के प्रदर्शन जैसे ही हिंसक होते हैं, उन्‍हें समाप्‍त करना आसान होता जाता है. कोई विचार हिंसा के पास पहुंचते ही संकुचित होता जाता है.


गांधी देश की आजादी पर बात करने को तब तैयार हुए जब उन्‍हें यह भरोसा दिलाया गया कि अहिंसा से कोई समझौता नहीं होगा. देखिए, वह कैसे-कैसे नाजुक मोड़ पर आजादी का आंदोलन टाल देते हैं. आजादी को छोड़ वह मन के विकार पर संवाद करने लगते हैं. वह कितने सही थे. वह जानते थे कि हिंसा के साथ लंबे समय पर देश का चलना संभव नहीं


ऐसा कोई भी व्‍यक्ति हो स्‍वयं को धार्मिक कहता है, हिंसक हो ही नहीं सकता. असल में वह धार्मिक ही नहीं जो हिंसक है. उसने धर्म को समझा ही नहीं, धारण करना तो बहुत दूर की कौड़ी है. प्रतीक धारण करना अब फैशन का विषय है. इससे किसी के धार्मिक होने का कोई सरोकार नहीं.


यह धार्मिक होना नहीं है. धर्म की ओट लेकर मनुष्‍यता का अपमान करना है. दूसरे को मारकर, उसके धार्मिक स्‍थलों को चोट पहुंचाकर कोई धार्मिक नहीं हो सकता. आस्‍थावान नहीं हो सकता. अहिंसा में विश्‍वास तो बहुत दूर की बात है.


हमें अपने बच्‍चों, युवाओं को हिंसा से बचाए बिना कुछ हासिल नहीं कर सकते. नफरत, हिंसा की बुनियाद पर समाज में कुछ नहीं रचा जा सकता. हम कुछ हासिल नहीं कर सकते. अहिंसा को समझिए. प्रेम को अपनाइए. गांधी और बुद्ध की बातें करने से कुछ नहीं बदलने वाला, उनकी शिक्षा जब तक भीतर नहीं जाएगी, हिंसा का मैल मन से दूर नहीं होगा.